मक़सद ढूंढते-ढूंढते



मक़सद ढूंढते-ढूंढते, बेमक़सद ना हो जाना 
के पता चले के इस जद्दो-जहद में राहे-मंज़िल से ही मुड़ गए 

वो हर घूँट हवा का, जो पीते रहे जीने के लिये 
के साँसे चलती रही और जज़्बात बनते रहे 

मैं चला तो था खुद की तलाश में 
मिला हुज़ूम और भी, था जो इसी जुफ़तूजू में 

हर सख्श मसरूफ था उसी जुनूँ में 
पर न किसी को खबर थी के जाना कहाँ है 

आखिर सब पहुँचे एक ही जगह 
मिटटी में मिल गए, हुए ख़ाक सब अरमान 
जैसे वो ख़्वाब, जो सुबह याद ही ना हो ॥


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