मैं ज़िन्दगी की दौड़ में आज भी मशगूल हूँ
मैं ज़िन्दगी की दौड़ में आज भी मशगूल हूँ
मैं आज भी हूँ बेफिक्र, थोड़ा आज भी मजबूर हूँ
ये नहीं की तेरी याद अब आती नहीं
तू दर्द बनके आज भी मेरे सीने में महफूज़ है
तेरे ना होने की खलिश आंसू बन बहने को बेताब हैं
ज़हन में तेरी तस्वीर धुंधला गयी है, पर क़ायम है
कभी चला जाता हूँ उस कमरे में तो हाथ फिराते ही चमक उठती है
और पहली बात मुझसे मेरी फिक्र की करती है
सब सिखाया तूने, बस तेरे बिना जीना सीखाना भूल गयी
सर्दी की रात में तेरे दुलार की निमास हो
तेरी रोटियों की खुशबु और दाल की वो सीटियां
तेरे हाथ के खाने का स्वाद, तेरे घर सवारने का अंदाज़
वो बेशकीमती लम्हे गर सब लुटा कर भी लौटा सकूँ तो लौटा दूँ
तू टांक दे शर्ट का बटन, ये सोच कर आवाज़ दूँ
या शायद मेरी तंग पतलून का इलाज़ तेरे पास हो
अब किस बहाने से करूँ मैं तेरी आरज़ू
मैं क्यों रो रहा हूँ उन सुखों को, जो के अब ग़ैर ज़रूरी हैं
ये सब तो सीख चुका हूँ मैं, फिर भी तेरे बिना ज़िंदगी अधूरी है
मैं आज भी जश्न-ए-सुबह से करता आगाज़ हूँ
पर मन मेरा आज भी तेरी कविता से उठने को बेताब है
"उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लाई हूँ मुँह धो लो"
मैं ज़िन्दगी की दौड़ में आज भी मशगूल हूँ
मैं आज भी हूँ बेफिक्र, थोड़ा आज भी मजबूर हूँ ॥
Comments
Post a Comment