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Showing posts from September, 2016

मोमबत्ती की तरह जलती ये ज़िंदगी

मोमबत्ती की तरह जलती ये ज़िंदगी  हाथों में रेत सी फिसलती ये ज़िन्दगी  जल जाना इसकी फ़ितरत है  आंधी-तूफानों से तो शायद बच भी जाये  पर अपनी किस्मत से कैसे बचे ये ज़िन्दगी  इसे जलता देख भूल न करना के ये हमेशा ही रोशन रहेगी  एक दिन सिर्फ पिघला हुआ मोम होगा, और लो बुझ चुकी होगी  हाँ उस मोम से एक नयी शक्ल में, एक नए धागे से, एक नयी लो जलेगी  पर वो लो नयी होगी, होगी वो एक नयी ज़िन्दगी उस मोम के पिघल जाने से पहले के किस्से उस ज़िन्दगी के होंगे जिस धागे की लो से वो जलती रही ॥ 

मक़सद ढूंढते-ढूंढते

मक़सद ढूंढते- ढूंढते, बेमक़सद ना हो जाना  के पता चले के इस जद्दो-जहद में राहे-मंज़िल से ही मुड़ गए  वो हर घूँट हवा का, जो पीते रहे जीने के लिये  के साँसे चलती रही और जज़्बात बनते रहे  मैं चला तो था खुद की तलाश में  मिला हुज़ूम और भी, था जो इसी जुफ़तूजू में  हर सख्श मसरूफ था उसी जुनूँ में  पर न किसी को खबर थी के जाना कहाँ है  आखिर सब पहुँचे एक ही जगह  मिटटी में मिल गए, हुए ख़ाक सब अरमान  जैसे वो ख़्वाब, जो सुबह याद ही ना हो ॥

मैं ज़िन्दगी की दौड़ में आज भी मशगूल हूँ

मैं ज़िन्दगी की दौड़ में आज भी मशगूल हूँ  मैं आज भी हूँ बेफिक्र, थोड़ा आज भी मजबूर हूँ  ये नहीं की तेरी याद अब आती नहीं  तू दर्द बनके आज भी मेरे सीने में महफूज़ है  तेरे ना होने की खलिश आंसू बन बहने को बेताब हैं  ज़हन में तेरी तस्वीर धुंधला गयी है, पर क़ायम है  कभी चला जाता हूँ उस कमरे में तो हाथ फिराते ही चमक उठती है  और पहली बात मुझसे मेरी फिक्र की करती है सब सिखाया तूने, बस तेरे बिना जीना सीखाना भूल गयी  सर्दी की रात में तेरे दुलार की निमास हो  तेरी रोटियों की खुशबु और दाल की वो सीटियां  तेरे हाथ के खाने का स्वाद, तेरे घर सवारने का अंदाज़  वो बेशकीमती लम्हे गर सब लुटा कर भी लौटा सकूँ तो लौटा दूँ  तू टांक दे शर्ट का बटन, ये सोच कर आवाज़ दूँ  या शायद मेरी तंग पतलून का इलाज़ तेरे पास हो  अब किस बहाने से करूँ मैं तेरी आरज़ू  मैं क्यों रो रहा हूँ उन सुखों को, जो के अब ग़ैर ज़रूरी हैं  ये सब तो सीख चुका हूँ मैं, फिर भी तेरे बिना ज़िंदगी अधूरी है  मैं आज भी जश्न-...

वक़्त हर एक गुज़र गया

वक़्त हर एक गुज़र गया, मैं चट्टानों सा खड़ा रहा आंधी तूफानों के निशां हैं मुझपे भी टकराती हवाओं ने घिसा मुझे भी है मैंने भी देखें हैं ढहते हुए टीले  उखड़ते पेड़ और उजड़ते हुए घोसले  शायद देख उन्हें ही मैं डटा रहा     सर्दी, सावन, गर्मी, बारिश और पतझड़ सा  दर्द, खुमारी, इश्क़, बेकरारी और ग़म  आया और गया  वसंत जैसे ही खुशनुमा पल जल्द बीत गए  और सर्द रातें काटें ना कटीं  फिर एक साल मैंने ठिठोली की सर्द हवाओं से  बारिशों संग गीत गाये  और राग मिलाये पतझड़ से  तब से हर मौसम ख़ुशनुमा बन गया  मैं वसंत में खिल उठता हूँ आज भी  पर अब सर्दी में कर्राहता नहीं  ना बारिश से बचता हूँ और ना गर्मी से खीजता  मैंने हर मौसम से दोस्ती कर ली है  और सबने खूब प्यार भी दिया  ये जो चट्टानों सा मैं हूँ खड़ा  मेहनत कर कर इन्होंने ही मुझे है  गढ़ा ॥ 

अर्धांगिनीं

मेरी कल्पनाओं की अर्धांगिनीं की आकृति, जिसे तुमने रूप दिया  मैं जान भी न पाया और वो हिस्सा हृदय का तुमने भर दिया  मेरी सब कुरीतिया अपनाकर, मुझे अपने मन वो सुन्दर स्वरुप दिया जैसे वन के जल स्रोत से जमी काही हटा,  शीतल जल छू लिया हो  न मैंने कभी कहा ना तुमने पूछा  बस यूँ ही मैं तुम्हारा हो गया  तुमने मुझे अपना जो लिया था  मेरा हर रूप, अच्छा-बुरा, सब तुम्हारा था  मेरा ये शरीर, मेरा धड़कता हृदय... जो मुझे जीवित होने का एहसास करा रहा था  मेरे सपने, मेरी आकांक्षायें... जो मुझे जीने की प्रेरणा दे रहीं थी  सब तुम्हारा विस्तार थी  तुमने कभी ऐसा कहा नहीं, पर मैंने जान लिया  जीवनसाथी होने का मूल भाव तुमने मुझे समझा दिया था  मैं जान चूका हूँ के तुम मेरी सीमा नहीं हो मेरी जिम्मेवारी, मेरा भय, मेरी ज़रूरत नहीं  तुम मेरा विस्तार वो मैं बढ़ चुका हूँ, जुड़ चुका हूँ  मेरी ये देह, मेरी सोच मेरे अंतःकरण का ये ताना बाना तुम से नातेदार है  गहराई से जुड़ चूका है...

तुम चित्त हो

तुम चित्त हो, तुम चरित्र हो  तुम ही स्वाश हो, अश्रु मेरे  मन का विश्वास, मेरे जीवित होने का एहसास  तुम मेरी कल्पना हो और तुम ही यथार्थ      मेरी सृजनता में तुम हो  मेरी मन की धरातलता में तुम  मेरी आकांक्षाओं की लहर तुम हो  मेरी शाम तुम सहर तुम हो  मेरा मान हो तुम मन के बंद गलियारों में ज्योत तुम हो  मेरे प्रत्येक प्रयत्न में प्रबल तुम हो  मेरे निर्जीव देह का बल तुम हो 

चु चु चिड़िया

घर आई  एक चु चु चिड़िया दाना खा गई  चु चु करके पानी पी गई  चु चु करके खेलती रहती इधर उधर वो चु चु करके फुदक फुदक के पास जाओ तो हाथ ना आती उड़ जाती वो फुर फुर करके

यूं हमने खुदा मान लिया

क्या खुदा क्या बंदा  सब झोल झपाटा है  क्या ख्वाब और क्या हकीकत  जो हो रहा है वो सच है  या जो समझ नहीं आ रहा वो पहेली  समस्या तो ये गंभीर है  पर एक पैदायशी हुनर हम सब में है  जीने का, सीखने का और बेहतर करने का  क्या बेमिसाल चीज़ है "स्वाभाविक प्रवत्ति" चीटियां भी बाढ़ आने पर झुण्ड बना के नाव बन जातीं हैं  झुण्ड को तैरा कर ले जाती हैं,  कुछ मर जाती हैं ,  कुछ को मछलिया खा जाती हैं  उन्हें कौन सिखाता है ये सब,  और कितने समय में चंद महीनो की ज़िन्दगी है उनकी  कहना आसान है के भगवान या खुदा नाम की कोई चीज़  और कहना मुश्किल है के असल में ये ताना-बाना आखिर है क्या  और किस लिए, आखिर मकसद क्या है इस सब का  अगर कोई मकसद है भी तो  कैसे बने हम सब और क्यों बनें  हैरानी की बात नहीं के लोगों ने खुदा बना लिया  पहेली बुझाने के लिए कुछ तो मानना ही था  जिसकी ना समझ हो और ना अनुमान  जैसे गणित के गुरु जी कहा करते थ...