फिज़ूल शायरी
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आज जोश की नयी लहर उठ रही है
लगता है ज़िन्दगी मेरे इशारो पे चल रही है
हवा के घोड़ो पे दौड़ते मेरे दिन
और पहली बार लगता है लगाम भी मेरी है
ये तेरे होने की वजह से है या कुछ और
पर जो भी है, आज मेरी बेफिक्री का नशा ही अलग है
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सब कुछ वैसा ही है, फिर भी कुछ कमी सी है
लोग वही शहर वही, फिर भी ये शाम उदास है; थमी सी है
पर एक तस्सली है इस शाम में
के दूर उस शहर में सुबह ख़ुशनुमा होगी
ये शाम मेरी हुई पर वो सुबह, वो सुबह तेरी होगी
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अब वक़्त बिछड़ने का था, सोचा चंद बातें करें
फिर सोचा चलो जाने दो क्यों लफ्ज़ ज़ाया करें
तुम्हारे हिस्से का वक़्त तो तुम्हे दे ही चुके हैं
और बची बातें, वो मैं रख लेता हूँ
अब ये तुम्हारे तो किसी काम की नहीं
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ख्वाहिश है के उसका हर एक सपना समेट लूँ
हर दिन एक चुनूँ और जुट जाऊँ उसे पूरा करने में
फिर रात को उसे बाँहों में ले कुछ नए सपने बुनूँ
और फिर सुबह उठकर उनमें से एक चुनूँ
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ये तो मन के भाव है मेरे
कभी थोड़ा छलक गए, कभी पूरा बह गए
शीशे पर जमी सर्दी की ओस से हैं
ऊँगली फिरा कर कुछ भी लिख दो, फिर जम जाते हैं
सनसनाहट सी कर जाते हैं, जब छू जाते हैं
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मोहब्बत तुझसे करूँ, तो नफरत किस से करूँ
नफरत जो करूँ तुझसे, तो मोहब्बत का क्या करूँ
मेरा इम्तेहां यूँ ना ले, मैं खुद कशमकश में हूँ
मोहब्बत तुझसे करूँ, तो नफरत किस से करूँ
नफरत जो करूँ तुझसे, तो मोहब्बत का क्या करूँ
मेरा इम्तेहां यूँ ना ले, मैं खुद कशमकश में हूँ
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तुमसे हम बिछ्ड़े कुछ यूँ
के दोबारा मिलने की गुंजाईश ही ना छोड़ी
ना तुम्हे शर्मिंदा किया बेरुखी पे तुम्हारी
और इज़्जत रख ली अपनी भी थोड़ी
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पल भर साथ चल के कहते हैं, अब इंतेहाः हो गई
अरे इंतेहाः तो तब हो, के ये जां निकले और आह में तू हो
मेरी रूह जिस्म छोड़ रही हो
और मेरी बाँहों में तू हो, इंतेहाः तो तब हो
मेरे जीने का हौसला टूट रहा हो
और दूर कहीं निगाहो में तू हो, इंतेहाः तो तब हो
इंतेहाः तो तब हो, के ये नाखुदा किसी खुदा से मांगे
और जब मांगे तो बस दुआओं में तू हो
धुप में तप के गिर जाऊँ मैं जब
वहां राहत की ठंडी छाओं में तू हो
इंतेहाः तो तब हो
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सजदे में झुके सर, और दिलों में खौफ जीने का
देख मुसाफिर क्या खूब जुटा है मजमा बुतों का
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दर्द वही, टीस वही
मैं खुद में डूब के भी ना जान पाया गहरायी अपनी
और वो किनारे पे खड़े हो कहते की पहचान गए तुम्हें
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मुसाफिर चले जा अपनी मौज में, बेबाक बेफिक्र
भटके हुओ की राह पे बंजारे नहीं मुड़ा करते
________________________________________पल भर साथ चल के कहते हैं, अब इंतेहाः हो गई
अरे इंतेहाः तो तब हो, के ये जां निकले और आह में तू हो
मेरी रूह जिस्म छोड़ रही हो
और मेरी बाँहों में तू हो, इंतेहाः तो तब हो
मेरे जीने का हौसला टूट रहा हो
और दूर कहीं निगाहो में तू हो, इंतेहाः तो तब हो
इंतेहाः तो तब हो, के ये नाखुदा किसी खुदा से मांगे
और जब मांगे तो बस दुआओं में तू हो
धुप में तप के गिर जाऊँ मैं जब
वहां राहत की ठंडी छाओं में तू हो
इंतेहाः तो तब हो
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पैगाम जब भी लिखता हूँ तुझे
तेरी सूरत ज़हन में आती है
तेरे साथ बिताये पल किस्से बन उमड़ आते हैं
और उन किस्सों में मैं मुद्दा भूल जाता हूँ
________________________________________सजदे में झुके सर, और दिलों में खौफ जीने का
देख मुसाफिर क्या खूब जुटा है मजमा बुतों का
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दिल के जज़्बात ना यूँ ही जाहिर होने देना
क्या पता उसके हालात ही ना हो के उनकी कद्र कर सके
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आज कुछ अनजाने रास्तो की टोह ली
ना जाने मेरा दिल खुला था या ये आसमान
________________________________________दर्द वही, टीस वही
बस अंदाज़-ए-बयां अलग अलग है
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इस दुनिया की भीड़ तो देखी होगी
अब ये बंजारा भी तू देख
बहुत देखें होंगे ऊँगली उठाने वाले
तोहमतें सह जाने वाला दिल अब देख
तेरी खुदाई में झुके सर तो बहुत देखे होंगे
तेरी खुदाई से बेपरवाह खादिम भी देख
तेरी खुदाई से बेपरवाह खादिम भी देख
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नाम है बस एक इत्तेफ़ाक
फक्र इस इत्तेफाक पर जैसे बेवजह रुबाब
करना है तो करो रोशन अपनी जिंदादिली से
औलादों को फ़िक्र और भी होंगी जनाब
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